दरारें और ज़िंदगी
सड़कें और इमारतें अक्सर बदलती हैं
टूट जाती हैं और फ़िर से संवरती हैं
पर जो बदलने से भी नहीं बदलतीं
और छिपाने से भी नहीं छिपतीं
वो इन पर पड़ी मनहूस दरारें होती हैं
ऐतिहासिक इमारतों पर यही दरारें
एक अजीब सा अहसास जगाती हैं
जाने कितने अनसुने किस्से सुनाती हैं
वो कहानियाँ जो सुनी हैं पर देखी नहीं
उनके इतिहास से क़रीब से मिलाती हैं
पर जो दरारें सड़कों पर देखी उनका क्या
देखा उनमें तो दिखा ख़ून और दर्द
कान लगाने पर सुनाई पड़ी गुम चीख़ें
सोचा, इन दरारों को कोई भरता क्यूँ नहीं
टूटी सड़कों को कोई ठीक करता क्यूँ नहीं
दिखता है वहां कितना संघर्ष और दर्द
और दिखती है शिद्दत से दुआओं की ताक़त
बैठ गयी मैं वहीं उसी सड़क के किनारे
और गुम हो गयी तनहा अपने ख़्यालों में
देखा तो हाथों की लकीरें भी दरारों सी लगीं
क्या फ़र्क़ था इन दरारों और लकीरों में
जैसा अस्तित्व था उनका वैसी ही कहानी थी
कभी तोड़ देती हिम्मत तो कभी जगा देती उम्मीद
क़िस्मत का खेल कहें इसे या इन लकीरों का नसीब
भले कैसी भी हों दरारें कुछ दूरी तो बढ़ाती ही हैं
कभी इश्क़ का छोटा सा फूल खिलता है
वो इन दरारों के दर्द में राहत सा लगता है
सफ़र की हर बात जानी-पहचानी लगती है
हमारी ज़िंदगी भी बस कुछ ऐसी लगती ही है
बनती है बिगड़ती है पर फ़िर यूँ ही चलती है
हमारी ज़िंदगी भी बस कुछ ऐसी लगती ही है
बनती है बिगड़ती है पर फिर यूँ ही चलती है