परिंदों की बस्ती

Picture by Arushi Rawat
परिंदों की बस्ती में नया मेहमान आया था, अपना शहर समझकर रहने इंसान आया था। कुदरत की मेहमान नवाज़ी की भी हद थी, परिंदों ने इंसानों की ख़ातिर छोड़ी अपनी छत थी। परिंदा एक-एक कर हर शह गवाता चला गया, इंसान खुदा बनने को वेह्शत दिखाता चला गया। कुदरत सोचे मैंने रखी किस बात की कमी थी, क्यों मेरे दामन पर मेरी ही पलकों की नमी थी। फिर क़दम मुश्किल कुदरत को भी उठाना पड़ा, उसे सबक का कहर मेहमानों पर भी ढाना पड़ा। पर फिर क्या ग़लत था जिसके खिलाफ़ लड़ना था, अन्याय अगर अन्याय करने वाले के साथ हो रहा था। हदें तो कई इंसानों ने भी तोड़ी थी, कितने गुलिस्तानों की सूरत खिज़ा में मोड़ी थी। अज़ीब सा सन्नाटा पसरा था चारों ओर, ख़ामोशियों का शोर समझ आने लगा था। बेड़ियों का सौदागर खुद पिंजरे में कैद हुआ, और नील बस्ती का बाशिंदा लौट कर आने लगा था।